Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 37-यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || ४-37||

( जिस तरह से प्रज्वल्लित अग्नि लकड़ी को (इंधन) को जलाके भस्म कर देती है. उसी तरह से ज्ञान अग्नि सर्व कर्म को भस्मीभुत कर देते है. )

मित्रो, हमारा ब्लॉग कुछ न कुछ ऐसी दिव्य सोच लाता रहता है. यहा पर जो topic है, उनकी गहराई में जाये, तो आपको मालूम होगा की भगवद गीता के श्लोक में कितना ज्ञान छिपा हुवा है. !! bhagwat geeta hindi mein अलग अलग श्लोको के माध्यम से हम इन्ही ज्ञान को आपके समक्ष रखने की कोशिस करते है.

श्लोक का सरल अर्थ हमने समज लिया. अब थोडा गहराई में जाते है. हम यहा थोडा हटके मतलब की इनके पीछे छिपे हुवे रहस्य को कुछ अलग तरीके से बताते है, ताकि हमे इस ग्रन्थ की महता समज में आये.bhagwat geeta in hindi shlok

हमारी समस्या क्या है ? हम बहुत कुछ सही दिशा में करना चाहते है लेकिन होता नही है ? हमारे विपरीत कर्मो हमे रोकते है. हमारे जीवन में ऐसे कई सारे कर्म होते है जो हमारे लिए स्पीड ब्रेक का काम करते है. इस कर्म की लिस्ट में हम दिनचर्या, हमारा रूटीन आचरण, दुसरो के साथ हमारा व्यवहार, इतना ही नही हम जीवन में जो कोई भी कार्य करते है वह हमारे आनंद और सुख को तय करते है. इसलिए सही कर्म सही दिशा में बहुत ही आव्यशक है.

हालाकि, भगवद गीता में तो कर्म के फल से ऊपर उठने की बात कही गई है. लेकिन इतने उपर के स्टेज पर पहोचने से पहले हमे वर्तमान के कर्म को व्यवस्थित करना होगा. क्योकि विपरीत कर्म ही हमे निम्न स्तर पर ले जाते है. इसलिए कर्म को शुध्ध करना अत्यंत जरूरी है. यहा कर्म केवल शरीर से नही होता लेकिन हम जो सोचते है, बोलते है वह भी कर्म है !! इस तरह से कर्म तो तिन प्रकार के हुवे कायिक वाचिक और मानसिक !!

अब गीता मेजिक देखिये. भगवान कहते है की अगर हम केवल बाहर से कर्म को ठीक करते रहे लेकिन हमारा पूरा नजरिया न बदले तो कुछ नही होता क्योकि. बाहर से अगर हम थोडा बहुत सुधार कर भी ले तो भी मन में छिपे संस्कार तो फिर से वही विपरीत कर्जम को जन्म देगे !! bhagwat geeta in hindi quotes

अब ज्ञान की आव्य्श्कता होती है !! जब तक छोकरमत रहेगी तब तक तो मन की उछल कूद रहेगी लेकिन एक परिपूर्णता का एक छोटा सा भी अहेसास होगा की तुरंत सारे कर्म अपने आप साधना बन जायेगे. केवल स्व को एक कोचले में केद समजना यही अज्ञान है. अपने भीतर की महत्ता को पहेचानना ही ज्ञान है. ये केवल अध्यात्म में ही नही जीवन व्यवहार में भी इतना ही आव्यश्क है.

अगर ऐसा नही होता तो ये ज्ञान रणभूमि में क्यों दिया जाता !! भगवान ज्ञान को अग्नि के समान कहते है. अग्नि जैसे लकड़ी को जला देती है उसी तरह से ये ज्ञान अग्नि अगर भीतर प्रज्वलित हो तो गलत कर्म के संस्कार ही नष्ट हो जाते है. इन सॉर्ट भीतर से जो हमे गलत दिशा में धक्का देता है वही नष्ट हो जाता है. एक आनंद, परिपूर्णता का अहेसास होता है.

Bhagwat Geeta In Hindi Shlok

यहा पर कोई फर्क नही की आप कितने सालो से इस विपरीत सोच और कर्मो में अनुरुक्त हो !! जिस तरह से अग्नि लकड़ी को जला देती है. लकड़ी चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो.आग से वह बच नही शकती. अग्नि उसे भस्म कर देती है. उसमे खराबी हो, दीमक लग गया हो, टेढ़ी मेडी हो, या और कोई भी खराबी क्यों न हो ? अग्नि उसे जड से मिटा देती है.

उसी तरह से ज्ञान होते ही ऐसे कर्म जो हमे विपरीत दिशा में ले जाते है वह सभी नष्ट हो जाते है. मजे की बात तो यह है की ये कर्म अपने संस्कारो के साथ नष्ट होते है मतलब की भीतर जो एक विपरीत कर्मो का बिज रहता है वह भी नष्ट हो जाता है. वह कैसे तो देखते है …

कर्म का आधार सोच है. कोई भी कार्य उत्पन्न होने से पूर्व उनकी रूपरेखा मन में ही तैयार होती है. आदमी लम्बे समय तक सोचता रहता है. फिर धीरे धीरे वह अमल में आने लगता है.

गलत कर्म का आधार गलत सोच है. अगर कर्म को मोड़ा जाये, मतलब किसी भी तरह से आप दुसरो की नकल करके या किसी के कहने पर उसे सही दिशा दे !!

किन्तु अगर सोच में कोई सुधार नही आया.. मतलब बाहर से दिखावे के लिए करते है अच्छा !! पर भीतर तो भरा रहता है कूड़ा..

निरंतर संस्कार बने रहते है..उसमे कोई बदलाव नही..

तो जैसे ही मनोबल थोडा सा भी निर्बल होगा की तुरंत संस्कार मन पर हावी हो जायेगे… यही संस्कार फिर से विपरीत कर्म में तबदील होगे.

यहा पर ज्ञान मन में छिपे ऐसे संस्कारो पर काम करता है. उन्हें ही चोट पहोचाता है. मतलब की उनमे तबदील करता है. mind stage ही बदल जाता है…सारी व्यथा हो, राग द्रेश हो, विपरीत मनोदशा हो..आलस्य विकारी चिंतन हो वह सब दूर हो जाते है… इतना ही नहीं उनके जो संस्कार है वह भी नष्ट हो जाते है.

एक घेरा है उसीसे बाहर निकलना-Change Thinking Method

सोच का एक घेरा होता है. अगर वह सही दिशा में हो तो अच्छा लेकिन गलत दिशा हो तो बहुत परेशान कर देती है. अक्सर लोग उनसे बाहर निकलने के लिए बहुत सारे प्रयास करते है.

लेकिन कभी कभी ऐसा होता है की ये एक दल द्ल जैसा बन जाता है. मतलब की कितना भी प्रयास करे लेकिन बाहर निकलने के बजाय भीतर उलझ ते जाते है !!

उसी तरह से यहा भी होता है. यही कारण है आपको को ये भी लगेगा की कर्म की बात है तो यहा पर सोच को बीच में क्यों डाल रहे हो !! तो बात यह है की कर्म भीतर की सोच का ही नतीजा है. अगर कोई विपरीत सोचता रहे तो उनके कर्म आज नही तो कल बुरे होने ही वाले है. उनसे उल्टा अगर सोच दिव्य होती जाये तो धीरे धीरे एक दिन तो उसे सही मार्ग पर ला ही देगी

कर्म को मोड़ा जा शकता है लेकिन उनके संस्कारो को जल्दी से मिटाना बहुत ही मुश्किल है !! इसलिए तो कभी कभी ऐसा होता है की हम प्रयास बहुत करे लेकिन एका एक कोई गलत सोच बाहर निकल ही आती है. एक बार यह सोच बाहर निकले की तुरंत जो पिछले संस्कार थे वह ताजा हो जाते है.

इस घेरे में ऐसा होता है की एक सोच उभर कर आये उनके मुताबिक कर्म करे की तुरंत उनके संस्कार स्टोर हो जाये. फिर वही संस्कार दूसरी सोच को जन्म देते है. दुसरी सोच फिर से संस्कार को जन्म देते है. इस तरह से एक चेनल खड़ी हो जाती है.

ये एक चेनल बन जाती है. ये चेनल का विचार आपको सामान्य लगेगा !! लेकिन ऐसा है नही .. ये कभी कभी तो इतनी परेशान करने वाली बात बन जाती है की उनसे बाहर निकलना बहुत ही मुश्किल बन जाता है.. कभी तो ये नामुमकिन सा लगता है it becomes impossible to overcome the thoughts.

तब क्या काम आता है ? कौनसा उपाय करना चाहिए ? what should we do to save ourselves from that condition. यहा पर भगवानने कहा है की हमे ज्ञान का सहारा लेना चाहिए. मतलब की एक समज एक अनुभव.. एक अहेसास जो हमे इस सारी बातो से उपर उठा शके.

जब कोई भी सोच हमारे मनमे उत्पन्न होती है तब वह दो कार्य करती है एक वह अपने संस्कार बनाती है. दूसरी बात वह अपने ही अनुभव से हमे दूर करती है. मतलब की हम यही भूल जाते है की हम इस सोच के मालिक है. मतलब ये सोच हमारे आनंद के लिए है. नही के बंधन के लिए.

इसीलिए परमात्मा कहते है की जब हम यही ज्ञान को समज लेते है और हमारी स्थिति और अस्तित्व इस सोच से उपर है ऐसा मानने लगते है तब ज्ञान प्रगट होता है. यही ज्ञान धीरे धीरे जमे हुवे पुरातन संस्कारो को जला देता है.

जला देना मतलब उसे जड़ से मिटा देना – Root out old thinking pattern with its thoughts

सोच को रोकना और उसे बदलना ये बात अलग है. इनसे भी उपर सोच के छिपे संस्कारो को दूर करना ये तो इनसे भी आगे की बात है. जैसे पौधे की जड़े होती है !! और ऐसे कितने पौधे है की अगर हम उसे उपर से काट दे तो वह फिर से अंकुरित होता होने लगता है.

क्योकि उनकी जड़े अभी तक जीवित होती है. उस जड़में से नये अंकुर फूटते है. उसी तरह से सोच में भी होता है कोई भी सोच बेकार नही जाती !! अगर आपने एक बार भी सोचा है तो उनके संस्कार भीतर store हो गये होगे और वह फिर से अंकुरित होगे. हमे परेशान करेगे. इसलिए ऐसे विपरीत सोच के संस्कारो को केवल हटाने से या दूसरी दिशा में ध्यान लगाने से कुछ नही होगा. उनसे उपर उठना चाहिए. उस संस्कार को जला देना मतलब उपर उपर से ही नही ज्ञान होने से चितकी भीतर की परते निर्मल हो जाती है. उसे ही ज्ञान कहा जाता है.bhagwat geeta in hindi

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