ध्यान की पध्धति में अलग अलग सोच-Different type of thinking about meditation

ध्यान के बारेमे अलग अलग चिंतको अलग अलग मान्यता रखते है. यह सभी मान्यता को समजने के पूर्व हम यह समज ले की आखिर में ध्यान क्यों करना है. ?

हमारा जो स्वरूप है वह परम चेतना है. दिव्य चेतना है जिसे आत्मा भी कहते है. यह बात तो भगवान भी गीता में बताते है. वेदांत में उपनिषदो में ये बात प्रचुर मात्र में लिखी है की में ब्रह्म हु. अगर इनके आधार पर हम ध्यान को समजे तो हमे कुछ करने की जरूरियात नही है.

बस हम केवल कुछ न करके शांत हो जाये आशा से और निरासा से मुक्त हो जाये की धीरे धीरे ध्यान अपने आप लग जायेगा. अगर हम कुछ करेगे तो तुरंत ही अहंभाव उत्पन्न होगा और हम ध्यान से चलित हो जायेगे.

क्योकि वो क्रिया करने से मन की उपस्थिति होगी और जैसे एक नियन्त्रण में हुए व्यक्ति दुसरो को कैसे नियन्त्रण में ला शकता है. इस तरह ये मन स्वयम उस विचार के या वस्तु के साथ जुड़ जायेगा और उससे मुक्त नही हो पायेगा. ये मान्यता काफी तत्वचिंतको की है.

ये भी सही है. उनके मुताबिक सारी ध्यान के लियें करने वाली प्रक्रिया उपद्रव ही करेगी. क्योकि हम पूर्ण है वह हम स्वयम है तो उनके लिए हमे अपूर्ण क्यों बनना पड़े. मतलब की जब हम कोई आधार लेगे तो मन उन आधार को पकड़कर बैठ जायेगा फिर वहा से आगे नही बढ़ पायेगा.

क्योकि अहंकार ऐसी चीज है की तुरंत उत्पन्न हो जाता है और हमे हमारे ही स्वरूप से जुदा कर देता है. लेकिन पतंजली योग शास्त्र में उनके उपाय तो बताये गये है उनका क्या ? यहा पर जो मामला है वह साकार और निराकार का है.

दोनों एक अवस्था ही है इसलिए दोनों सही है. पात्रता भेदे वह अलग अलग हो शकता है. सामान्य व्यक्ति तो पूर्ण रूप से मन के साथ जुड़े हुवे है उसमे तुरत ही अगर वह में ब्रह्म हु ऐसा ध्यान न कर शके तो पहले एक आधार लेना है.

बाद में वह आधार को भी त्याग देना है और साधक पूर्णतः आत्मा में लींन हो जायेगा. लेकिन यहा भी अगर वह उसी आधार को पकडकर बैठ जाये तो भी बात नही बनेगी. फिर भी यह एक मार्ग तो है ही. उनके आधार पर अनेक भक्तो भी परमतत्व को प्राप्त कर गये है.

हम जो आध्यात्म को पाने के लिए पध्धति दर्शाएगे वह यह है की हमे मन से उपर उठाना है मतलब की मन सामने है और हम अलग. धीरे धीरे शांत होते जाना है यहा पर प्राणायाम मतलब की धीर धीरे श्वास को लेना और छोड़ना धीरे धीरे उसे भी भूल जाना है. बस एक गहरे आनद में डूब जाना फिर यह प्रक्रिया चलते फिरते भी हो शकती है. एक बार स्थिती बने फिर सहज हो जाये. द्रष्टि बदलनी है. सब कुछ उनसे अलग है ही नही ये दृढ मानना है. फिर भी जब तक मन रहेगा तब तक थोड़ी दिकत होगी.

यहा पर यह सोचने की जरूरत ही नही जो इस मार्ग में आगे बढेगा उसे अपने आप समज में आ जायेगा. पहले शरुआत तो करनी होगी बादमे ही सब कुछ समज आ जायेगा अगर शरू नही करेगे तो आनद की अनुभूति तक पहोचेगे कैसे.

बहुत पहोच हुवे महापुरुषो को तो आनंद से भी पर जाते है ये सब आगे की बाते है. समय और स्थल का भान भूल जाना यहा पर हो शकता है. अनेक रहस्यमई अनुभव भी हो शकते है. लेकिन एक बार कूदे तो पता चले. इस तरह से ये दोनों मार्गो कोई परस्पर विरोधी नही है लेकिन एक अवस्था ही है.

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