किस तरह से हम कार्य करते हुवे भी उपर उठे-Bhagavad Gita: Chapter 5, Verse 7

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: |
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते || 7||

(ऐसा व्यक्ति योग में युक्त रह शकता है जो अन्तःकरण से शुद्ध हो, जो अपने आप पर और इन्द्रिय पर नियंत्रण पा शकता हो, सर्व में अपने ही आत्मा को देखने वाला हो. वह क्या कर शकता है ? कर्म करते हुवे भी उससे स्वत्रंत रह शकता है. )

कर्म की सामान्य व्याख्या को समजे तो हम जो भी कार्य करते है, रोज मरा के जीवन में वह कर्म है. कर्म करना जरूरी है, ऐसा तो सब कोई जानते है. बिना कर्म के जीवन जीना असंभवसा लगता है. क्योकि, जीवन निर्वाह के लिए, या समाज के हित के लिए कर्म तो करना ही पड़ता है.

आपकी और हमारी बात करे तो सुबह से लेकर साम तक की जो कोई भी जरूरियात है वह पूरी करने के लिए हमे कुछ न कुछ काम करना पड़ता है. हमे जीवन जीने के लिए काफी सारी चीजो की जरूरत है.

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कर्म तो जरूरी है

वह चीजे या तो हमारी महेनत से, या हमारी महेनत के बदले दुसरो की महेनत खरीदकर पूरी करते है. बात इतनी ही नही पुरे देश की बात करे तो उनकी सुरक्षा करना..अन्य दुश्मनों से देश को बचाना..उनके लिए एक सेना की और कभी कभी युध्ध की आव्य्श्कता होती है.. वह भी तो कर्म ही है न !!

परमात्मा यहा पर कहते है की धर्म की स्थापना करने के लिए, अधर्म मतलब पाप कर्म का नाश करने की आव्य्श्कता तो होती ही है !! बिना कर्म किये विश्वमे शांति नही स्थापित की जाती.

क्योकि समय समय पर विपरीत शक्तिओ का उपद्रव होता ही रहता है. वह दिमागी हो यहाँ विश्व की धरा पर प्रगट हो !! उनके विरुद्ध एक अभियान छेड़ना पड़ता है वह कर्म है !! हालाकी यह एक नियमित रूप से घटित होता रहता है फिर भी कर्म की व्याख्या में तो आता है !!

प्रकृति की हरेक चहल पहल कर्म

गीता में कर्म को बहुत ही शुक्ष्म तरीके से वर्णित किया गया है. उनके मुताबिक हमारा शरीर जो अपने आप साँस लेता है वह भी कर्म है.. उसी तरह से देखा जाये तो सारी पकृति का कार्य मतलब की सूरज का उगना, पवन का इधर उधर दौड़ना और झरने का कल कल बहना एक प्राकृतिक कर्म है..बिज मेसे पौधे का अंकुरित होना भी प्रकृति का कर्म ही है !

मतलब प्रकृति का हरेक स्फुरण एक कर्म ही है. कर्म नई बात नही, ये एक बहुत ही सामान्य घटना है. जो हर तरफ नियमित रूप से घटित होती रहती है.

उनके साथ जुडी विपरीत भावना बिज को जन्म देती है

लेकीन जब हमारा कर्म एक कोई फिलिंग जो हमे विपरीत दिशा देने वाली हो.. तो उनके संस्कार हमारा कर्माशय बन जाता है.

मतलब की आगे का कर्म फल (भावी में प्राप्त होने वाली स्थिति) का बिज बन जाता है. इतना ही नही भावी कर्म और भोग का भी यही बिज होता है. क्योकि जो कार्य हमने किये है वही फिर से होगे !!

उसमे भी विपरीत कर्म के बिज, ममत्व के बिज, स्वार्थ कर्म के बिज ! प्रकुति के नियमो का हनन करके कोई एक देहसंघात को ज्यादा पोषित करने वाले कर्म का बिज, केवल काम आदि विकारो का बिज, ऐसे छिपे हुवे बिज हमे निम्न स्तर पर ले जाते है.

मतलब की एक ऐसा कोचला तैयार करता है जहा हमारा शुध्ध और आनंदमई आत्मा इस कोचले में घुसे और दुःख का अहेसास करे !! ये एक घेरे का निर्माण करता है इस घेरे में व्यक्ति फसता जाता है.. क्योकि ये कर्म ओर उनके संस्कारो का विष चक्र इतनी आसानी से समाप्त नही होने वाला. यही कर्म की और उनकी फलासा की मर्यादा है.

कर्म के बांधने वाले संस्कार

कर्म के संस्कार दो कार्य करते है. प्रथम दिशा देने का.. वह अनुकूल और प्रतिकूल हो शकती है.. दूसरा फिरसे वही क्रिया को जन्म देने का मतलब की जो भोग को भोगा है उसी कर्म को फिर से करने की इच्छा.. !!

जिव बार बार अतृप्त हो जाता है और कर्म में सम्मलित होता है वही कर्म फिर से उनकी अतृप्तिका कारण भी बनती है.. भले कर्म बादमे दुःख देवा हो.. भारी गलत हो.. पापजन्य हो.. इस तरह से चलते रहते इस chain को ब्रेक करने के लिए ज्ञान मार्ग है..

लेकिन अधूरी समज के कारण ज्ञान को निष्क्रियता, मूढ़ता को जन्म देने वाला बना देते है. तो उसे क्रियाशीलता के साथ मतलब की सही दिशा में कर्म को करते हुवे बिजत्व का भी नाश करता जाये ऐसे कर्म का मार्ग कर्म योग है .

मतलब की कर्म भी सहज भाव से हो और देह संघात से जो तादात्म्य है वह भी धीरे धीरे कम हो ऐसा हो पाए !! इसलिए गीता का कर्ममार्ग है. bhagwat geeta on karma, bhagwat geeta ka karm yoga. principal of karma according bhagwat geeta.

कर्म और उनके संस्कार के घेरे में से उपर कैसे उठे ?

परमात्मा यहा पर यही बात कहते हुवे उनके लक्षण बताते है मतलब की जो कर्ता है वह धीरे धीरे साधना करे योग से युक्त हो, उनका अन्तःकरण शुध्ध हो. अपने जीवन को टिकाने के लिए या अन्य व्यक्ति मतलब समाज के हित के लिए कर्म करना जरूरी है.

यहा पर तिन बाते जो प्रमुख है वह बताई गई है इनके बारेमे हम समजते है. हमारे ब्लॉग की प्रत्येक पोस्ट थोड़ी लम्बी लगे फिर भी principal of bhagwad geeta, bhagwad geeta ka gyan इसमें छिपा है.

भगवद गीता की सबसे बड़ी कोई खासीयत है तो यही है की वह routine life को बाधित न करते हुवे धीरे धीरे एक self awareness की सर्किट उत्पन्न करता है. जो सर्किट हमे आगामी जीवन में आनंद, प्रशन्नता और सुख की गारंटी देता है.

कर्म के साथ कुछ ऐसी विपरीत सोच राग द्रेश इत्यादि संस्कार, जो अपने केवल स्वार्थ के कारण संग्रहित होते है. इतना ही नही वही सोच के कारण शरीर के स्तर पर और मन के स्तर पर विपरीत दिशा में कर्म होते है वह. फिर से उसी कर्म के संस्कार धीरे धीरे भीतर के चित में संग्रहित होते जाते है.

वही धीरे धीरे आगे जाके नया जीवन जो कलुषित हो शकता है उसे उत्पन्न करता है. भावी स्थिति का सुधार तब ही हो शकता है अगर हम वर्तमान कर्म के जो संस्कार है उसे सुधारे. उनके लिए निचे दी गई तिन शर्ते.

योग युक्त

योग में युक्त मतलब की जो कर्म योग भगवान ने यहा पर वर्णित क्या है उनका ठीक से पालन करने वाला. बिना युक्त वह आगे कुछ नही कर पाता मतलब की इस भवाटवि में फंसता चला जाता है. ये एक infinite loop जैसा है.

मतलब की एक बार इसमें फँसे तो धीरे धीरे वह गहरा होता जाता है. जितना गहराई में जाये उतना बाहर निकलना मुश्किल. तो पहले से ही थोडा ध्यान रखे तो बात बन शकती है. इनके लिए कुछ ऐसे गुण है वह अपने आप में develop करने होगे. अगर ये कर लिया तो फिर भले ही कर्म करते रहे फिर भी इतना फँसेगे नही ऐसा कहना है यहा पर..

विशुध्धात्मा

शुध्ध अन्तः करण वाला व्यक्ति. मलिन अन्तः करण भीतर के आनंद को बाहर नही आने देता. वह स्वभाव से ही बंधनकारक है. मतलब की जिस तरह से आईने में मेल हो तो प्रतिबिब ठीक से नही दिखाई देता इसी तरह से यहा पर भी अगर शुद्धता रखे तो कर्म इतने बाँधने वाले नही होगे.

अलग अलग प्रकार के सभी अवगुण जो भीतर भरे पड़े है वह यहा पर नुकसान कारक है. में कुछ हु ऐसा अभिमान, सजातीय विजातीय अत्यंत आकर्षण, कोई भी वस्तु पर अत्यंत लगाव, गुस्से वाला स्वभाव, निरंतर चिंतित रहना, ट्रेस, बार बार सोचने वाला स्वभाव, केवल अपने ही बारेमे सोचना.

ये सब ऐसे अवगुण है जो कर्म तो हो जाये लेकिन उनकी जो कुछ अलग प्रकार की और गहरी छाप अंकित कर जाता है. जो बादमे एक घेरे का निर्माण करता है. वही घेरा अनेक जन्म का कारण है इतना ही नही पर दुखो का कारण होता है. ये सब एका एक नही होता धीरे धीरे ये सब उत्पन्न होता है बादमे हमे जकड़ लेता है

विजितात्मा और जितेन्द्रिय

दोनो एक साथ क्योकि एक दुसरे पर आधारित है. इन्द्रिय पर जय का मतलब क्या ? जो विषय निरंतर लोलुप करते है. उससे धीरे धीरे उपर उठना. विषयों को अपने साधन बनाना ! मतलब की हम उनके मालिक है !! वह हमारे लिए है हम उनके लिए नही !!

पैसा हमारे लिए है लेकिन केवल पैसा ही कमाना और किसी भी तरह से ये कोई तर्क नही ! सभी इन्द्रिय हमारे लिए है. खाना देखे तो खाते ही जाये, कोई लडकी देखि की उनके प्रति आकर्षित होकर उल्टा सीधा सोचने लगे.

आखो से गलत देखना कानो से केवल निंदा सुनना इस तरह के कोई भी विषय जिनके द्वारा हम ये जगत को भुगते है उन पर लगाम जरूरी है. बिना लगाम का घोडा कहा जायेगा ?

जो सर्व में अपने आप को देखता हो

अलगता ही सर्व पापो की जननी है ऐसा वेदांत का सिंहनाद है. जब हम कोई एक ही घेरे में सोचने लगे मतलब की केवल अपने ही लिए और दुसरो को भूल जाये की तुरंत ही पाप होने लगता है. क्योकि अपने आप को ज्यादा लाभ मिले इसलिए मनुष्य जो imbalance खड़ा करता है वही पाप है.

मन शांत तब ही रहेगा जब सर्व में एक ही तत्व है ऐसा हमे लगे. क्योकि मुझे ये नही मिला !! वह ऐसा कर रहा है !! में किसी भी तरह से ये सब मेरा कर लू.

कहने के मतलब यह है की अपने को सभीमें देखना. मतलब अगर हमे पीड़ा होती है तो दुसरे को भी होगी. हमे अच्छा पसंद है तो दुसरो को भी यही पसंद होगा. अब क्या होगा ! अगर दोनों इस तरह सोचे तो पूरा माहोल ही एकता और सद्भाव का बन जायेगा, जो चारो और तनाव कम करेगा. इस तरह का सार्वत्रिक भाव हमे शांत करता है. कर्म की qualities को बहेतर बनाता है.

दूसरी बात एक घेरे की है. जब संकुचितता होती है तो व्यक्ति आपने आप को एक घेरे में बंध कर लेता है. यही स्वार्थ दुसरे के हितो का हनन करता है. विपरीत कर्म को जन्म देता है. कर्माशय ही आगामी समय में दुखो का कारण बनता है.

ऐसा व्यक्ति कर्म में प्रवृत होते हुवे भी ऊपर उठ शके

ये सब धीरे धीरे विकसित कर पाए तो क्या होगा ? कुर्वन्नपि न लिप्यते मतलब की क्रिया करते हुवे भी उनसे पर रह शकता है. मतलब की कर्माशय का सृजन नही करता अपने आप को उपर उठा शकता है.

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