
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते || ३-7||
कर्मयोग भगवद गीता का महान उपदेश है. कर्म के बिना कोई जीवन जी नही शकता ऐसा भगवान ने भगवद गीता में कहा. क्यों ? इन पर गौर किया जाये, तो हम स्वयं भी ये पता लगा शकते है की कर्म तो एक सरल क्रिया है.
जब भी कोई कार्य होता है वह मन से हो या शरीर से कर्म ही कहलाता है. हमारी दिनभर की क्रिया..! रूटीन लाइफ खाना पीना, साँस लेना, कोई भी कार्य करना ये कर्म ही है वह पैसे के लिए हो, जीवन को चलाने के लिए हो या हमारे अपने लिए..! इनसे भी आगे हम दुसरो के लिए कुछ करे तो भी वह कर्म ही है !
इतना ही नही अगर हम कुछ न करे लेकिन केवल मन से कुछ सोचे तो भी ये कर्म है. किसी के बारेमे बुरा सोचे या अच्छा वह कर्म है.. उनके आधार पर हमारा आगामी जीवन तय होता है. क्योकि ये एक दिशा का कार्य करता है.
अक्सर ये देखा गया है की जो बुरे काम करते है वह बहुत समय से इस तरह का देखते है या सोचते होते है. उनकी गहरी छाप उसे ऐसे कर्म करने में प्रेरित करती है.
मतलब बहुत ही साफ है की कोई भी व्यक्ति कर्म से बच नही शकता इतना ही नही कर्म करने के बाद उनका जो परिणाम है वह भी उसे भुगतना पड़ता है. कर्म को यहा पर बहुत ही बारीकी से लेना है.
प्रकृति का प्रत्येक हिस्सा कर्म करता है. वह प्रत्यक्ष रूप से, अपने आप करे या, दुसरे के आधारित हो लेकिन कर्म तो करता ही है. वायु का एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाना, झरने में पानी का बहना, सूर्य का नियमित रूप से उगना ये सब एक कर्म ही है.
क्योकि ये प्रकृति एक दुसरे की क्रिया पर निर्भर है. मान लीजिए सूर्य ताप तो बरसाए लेकिन बादल में से बारिस ही न हो तो ? हम गेहू बोये लेकिन बीजो का अंकुरण ही न हो तो ?
पृथ्वी का भ्रमण, सूर्य का तपना, वायु की हलचल ये सब क्रिया देखते हम समज शकते है की ये सम्पूर्ण सृष्टि एक दुसरे के साथ जुडी है, इसलिए हम इसे भगवान का पूरा शरीर भी कहते है.
एक बात तय है की कर्म का पूर्ण त्याग सम्भव नही, तो अब ऐसा क्या करे की कर्म से उत्पन्न होता विपरीत कर्माशय न हो.मतलब कर्म इस तरह से हो की उनका विपरीत जो फल हमे मिलता है वह न मिले.
हांलाकि भगवद गीता तो अनुकूल और प्रतिकुल (प्रिय या अप्रिय कर्म का फल ) दोनों फलो की आकांक्षा को त्याग करने के बारेमे कहती है. कर्म पर पूरा ध्यान दे उनमे आनंद का अनुभव करे क्योकि फल तो अपने आप जो मिलेगा वह मिलेगा ! इतना ही नही जो भी मिले उस पर भी हमे एतराज नही जताना है लेकिन कर्म तो करते ही रहना है.
ये एक सफल और आनंदित जीवन का रहस्य भी है.
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कर्म करते हुवे भी हम उपर उठते रहे – Our Life Run Proper Way
कर्म बिलकुल नुकशान करता नही लेकिन अगर कोई एक स्थिति से, वस्तु से, व्यक्ति से अत्यंत आसक्त हो जाये तो कर्म की जो दिशा है वह विपरीत हो जायगी. मतलब की हम गलत रास्ते का चयन करे ये हो शकता है.
आदमी किसी वस्तु पर ज्यादा आसक्त रहने लगे तब वह किसी भी हाल में उसे अपनी ओर या अनुकूल करना चाहता है वही से बुरे कर्म की शुरुआत होती है. धंधा, नोकरी, व्यवसाय करना बुरा नही !! ये भी कर्म ही है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा लाभ लेने के चक्कर में हम तुरंत ही गलत रास्ता का चयन करने लगते है.
मतलब की सही हो या न हो फिर भी अगर हमे फायदा है तो हम करते है. उसी तरह से एक व्यक्ति पर आसक्ति हमे उनका और दुसरो का शोषण करने में मजबूर करते है. दुसरो की स्वतंत्रता पर तराप ही विपरीत कर्म को जन्म देता है.
उनका फल हमे मिलता है. इस तरह से कर्म की आसक्ति हमे विपरीत दिशा की ओंर ले जाती है. तो क्या करे सहज भाव से करे नित्य एक चेतस स्थिति या चैतन्य स्थिति बनाये रखे. अपने आप को भीतर की चेतना से या अपने self consciousness से तरबतर रखे.
कर्मयोग दो तरीके से होता है – how can we do Karmyog
कर्म योग दो तरीके से होता है पहला है कर्म को ही प्रेम करना मतलब कर्म में आनंदित होना और दूसरा है अपनी चेतना को मजबूत बनाना अपने consciousness के तरबतर रखने के लिए अध्यात्म चिंतन ध्यान का सहारा लेना चाहिए. इनके साथ साथ लोक हितार्थ कर्म भी अति जरूरी है.
हरेक व्यक्ति को अपने जीवन में दुसरो के लिए उपयोगी हो वैसे कर्म तो करते ही रहने चाहिए क्योकि इनसे हमारी द्रष्टि विशाल बनती है. हम केवल लेने वाले नही लेकिन देने वाले भी बनना है. वास्तवमे ये बाते बड़ी बड़ी लगती है लेकिन ये हमारे जीवन के लिए बहुत ही फायदेमंद है.
ये कोई एक खास प्रकार के व्यक्ति के लिए नही लेकिन जीवन की एक पध्धति तय करती है. हमारा जीवन निरंतर आनंदित रहे और चेतनवंत रहे इसलिए ये तकनीक का इस्तमाल करना चाहिए वरना हम केवल एक अपसेट होकर ही राह जायेगे.
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